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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ४. शुद्ध क्षायक ज्ञानदर्शन चारित्रादिक गुणो प्राप्त थये छते पूर्वला अशुद्ध अभ्यासिक गुणो त्याज्य थाय छ, आत्माना शुद्ध ज्ञानादिक सद्गुणोमां एवी सहज अपूर्व शीतलता तथा सुवासना रहेली छे के तेने पामीने आत्महंस वीजे क्यांय पण स्थिति करतो नथी, फक्त तेमांज सर्व संग तजीने लयलीन थइ रहे छे.
५. आत्मानुं स्वरूप थी सम्यग् समजी शकाय एवा तत्वज्ञानना प्रकाशवडे स्वयं आत्माने शिक्षा आपी सुधारी शके तेवं गुरुत्व पोताने प्राप्त न थाय त्यां सुधी उत्तम गुरुनुं शरण अवश्य आदरतुं युक्त छे, स्व कल्याण साधवानो संपूर्ण अधिकार प्राप्त थया बाद गुरुनी आज्ञाथी एकला विचरवामां पण हित छ, परंतु तेवी योग्यता पाम्या पहेला स्वच्छंदताथी एकला विचरतां तो केवळ अहितज छे.
६. ज्या मुधी सदाचारनी संपूर्ण शुद्धता सिद्ध थाय नहिं त्यां सुधी ज्ञानाचार आदि सकल आचार अवश्य सेव्य छे, पण ज्यारे असंग योगनी प्राप्ति थशे सारे कोई विकल्प पण रहेशे नहि, तेमज क्रिया करवानी चिंता पण रहेशे नहि, प्रथम मननी स्थिरता माटे सदा आचार पालवानी जरुर छे. आचारनी शुद्धिथी मननी शुद्धि विशेषे थाय छे, अने अंते निर्विकल्प समाधि सिद्ध थये छते सर्व विकल्प तथा क्रिया स्वतः उपशमे छे. परंतु परिपूर्ण योग्यता-अधि