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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १५१ सर्व प्रकारनी प्रतिकुळतावालां कारण मळी आवे छे, एम समजीने पूर्व पापनो क्षय करवा उदित दुःखने समभावे सहन करवा पूर्वक नवां पाप कर्मथी सदा निवतीने शुभ धर्मकरणी करवा सदा सावधान रहेवू युक्त छे. - (५६) जेमणे आ अमूल्य मनुष्य जन्म पामीने प्रमादने परवश थइ धर्म आराध्यो नहि, तेमज छते धने कृपणताथी तेनो सदुपयोग कों नहि, एवा विवेक विकळने मोक्षनी प्राप्ति दूरज छे. . (५७) आकाश मध्ये पण कदाच पर्वतशिला मंत्रतंत्रना योगे लांवो काळ लटकी रहे, देव अनुकूळ होय तो वे हाथना बळे कदाच समुद्र पण तराय अने धोळे दहाडे पण कदाच ग्रह योगी आकाशमां स्फुट रीते ताराओ देखाय परंतु हिंसाथी कोइलु कदापि कंड पण कल्याण संभवतुंज नथी. (५८) जेम ज्योतिश्चक्र रात्री अने दिवस→ मंडन छे, तेम अखंड शील सतीओ अने यतिओर्नु खरेखलं भूषण छे. (५९) मायावडे वेश्या, शीलवडे कुल वालिका, न्यायवडे पृथ्वीपति, अने सदाचारवडे यति महात्मा शोभे छे. (६०) ज्यां सुधीमां शरीर व्याधिग्रस्त थइ न जाय, ज्यां सुधीमां जरा अवस्थाथी देह जर्जरित थइ न जाय, अने ज्यां सुधीमां
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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