________________
१५०
श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
कोइ प्रिय मित्र नथी, अने लोभ समान कोइ शत्रु नथी. आमांथी युक्तायुक्त विचारीने तुजने रुचे ते आदर ! हितकारी मार्गज आदवो ए सद्विवेक पाम्यानुं सार छे.
(५२) हे भाइ जो तुं निर्वाण सुखने वांछतो होय तो परम क्षान्तिरुपी मियानो आदर कर; केमके तेणी शील श्रद्धा, ध्यान विवेक, कारुण्य औचित्य, सद्बोध अने सदाचरणादिक अनेक गुण रत्नोथी अलंकृत छे, क्षान्ति - क्षमानुं सम्यम् सेवन कर्या विना कोइ कदापि मोक्षपद पामी शकेज नाहि.
(५३) जे रागद्वेष अने मोहादिक दुष्ट दोषोथी सर्वथा मुक्त थइ, परमात्मपदने प्राप्त थया छे, अने जेमनुं वचन सर्व विरोधरहित छे, जे जगत्त्रयना निष्कारण बंधु छे; एवा परम कारुणिक सर्वज्ञ पुरुषज शरण करवा योग्य छे. एवा आप्त पुरुषना वचन अनुसारे वदनारा सत्पुरुषो पण मोक्षार्थी सज्जनोए सावधानपणे सेवन करवा योग्यज छे.
(५४) ज्यां सुधी सुकृतवडे करेलो पूण्यनो संचय होंचे छे, त्यां सुधीज सर्व प्रकारनी अनुकूल सुख सामग्री मळी आवे छे, एम समजीने शुभ धर्मकरणी करवा मन सदोदित रहे ते रहित वर्त्तं.
प्रमाद
(५५) ज्यां सुधी दुष्कृत करेलो पाप संचय होंचे छे त्यांसुधीज