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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १४९ शील तप अने भावना रुसी पवित्र धर्मनुं सेवन करवून उचित छे. (४७) सर्व संयोगिक भावोने क्षण विनाशी समजीने, गुरु 'कृपाथी शीघ्र स्वहित साधी लेवा बनतो श्रम करवो विवेकीने उचित छे. . (४८) जेमणे दुर्जननी संगति करी तेणे धर्म साधननी आ अपूर्व तक खोइ छे; एम निश्चयथी समजवं. दुर्जन द्विजिह्व सर्पनी जेवाज झेरीला होवाथी सामाने पण विक्रिया उपजावे छे. (४९) जो परमात्मामा पूर्ण प्रेम जाग्यो नहिं यातो संपूर्ण गुणानुराग जाग्यो नहिं, तो विविध शास्त्र परिश्रम मात्रथी शुं वळ्यु (५०) मिथ्याडंबरथी जीव परीणामे भारे दुःखी थाय छे. मिथ्या दमामथी जीव उq वेतरवा जाय छे, जेमा निश्चे हानिन पामे छ. एवो दंभ निश्चे दुर्गतिनुज मूळ छे. माटे सर्व प्रकारे कपत्ति तजीने सरल भावज धारण करवो मोक्षाने युक्त छे. दंभ युक्त सर्व कष्ट करणी मिथ्या थाय छे, निर्मळ ज्ञान वैराग्य योगेज दंभनी दुष्ट घाटी उल्लंघी शकाय छे. (५१) हे हृदय ! करुणा समान बीजो कोइ अमृतरस नथी परद्रोह समान वीजुं हालाहल झेर नथी, सदाचरण समान वीजो क. ल्पवृक्ष नथी, क्रोध समान कोइ दावानल नथी, संतोष उपरांत
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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