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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. (१७४) वस्त्र, गंध, माल्य अलंकार तथा स्त्री शय्यादिक नहि मळवा मात्रथी भोगवतो नथी. पण मनथी तो तेवा विषयमा सार मानीने मग्न रहे छे ते त्यागी कहेवाय नहीं.
(१७५) जो जळमां मच्छनी पद पंक्ति मालूम पडे के आकाशमां पंखीनी पद पंक्ति जणाय, तोज स्त्रीना गहन चरित्रनी समज पड़ी शके, तात्पर्य के स्त्रीना चरित्रनो पार पामवो अंशक्य छे..
(१७६) प्रियालापथी कोइनी साथ वात करती कामनी कटाक्षवडे कोइ अन्यने सानमां समजावती होय तेम वळी हृदयथी तो कोई वीजानुं ध्यान [चितवन ] करती होय, एवी स्त्रीनी चंचळताने धिक्कार पडो. स्त्रीओ प्रायः कपटनीज पेंटी होय छे.
(१७७) जो मन वैराग्यना रंगथी रंगायलं न होय तो दान, शील, अने तप केवळ कष्टरुपज थाय छे. वैराग्य युक्त करेली सर्व धर्म करणी कल्याणकारी थाय छे. माटे जेम वने तेम वैराग्य भावनी वृद्धि करवी युक्त छे. ते विना अलुणा धान्यनी पेरे धर्म करणीमां ल्हेजत आवती नथी, वैराग्य योगे तेयां भारे मीठाश आवे छे.
(१७८) अभिनव अध्यात्मिक शास्त्रो वांचवाथी सहजे वैराग्यनी वृद्धि थाय छे. __ (१७९) मैत्री, मुदिता, करुणा अने मध्यस्थ एवी चार भावनाओर्नु संयमना कामीए अवश्य सेवन कर जोइए.