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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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(८०) जगतना सर्व जंतुओ आपणा मित्र छे, कोइ पण आपणा शत्रु नयी, ते सर्व सुखी थाओ, कोइ दुःखी न थाओ, सर्वे सुखना मार्गे चालो एवी मतिने मैत्रीभावना कहे छे.
(१८१) सद्गुणीना सद्गुणो जोइने चित्तमां राजी थवुं. जेम चंद्रने देखीने चकोर राजी थाय छे, अथवा मेघनो गर्जारव सांभळीने मोर राजी थाय छे; तेम गुणीने देखी प्रभुदित थवं, अंतःकरमां आनंदना उमओ उठे तेनुं नाम मुदिता भावना कहेवाय छे.
(१८२) कोइ पण दुःखीने देखो दयाई दीलथी शक्ति अनुसारे तेने सहाय करवी तेमज धर्म कार्य मां सीदाता साधम भाइने योग्य आलंबन आप तेनुं नाम करुणा भावना कहेवाय छे.
(१८३ ) नेने कोइपण प्रकारे हितोपदेश असर करी शके नहिं एवा अत्यंत कठोर मनवाळा जीव उपर पण द्वेष नहि करतां तेवा - थी दूरज रहेधुं तेनुं नाम मध्यस्थ भावना कहेवाय छे.
(१८४) वीजी पण अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यस्व, अशुचित्व, आश्रय, संवर, निर्जरा, लोक स्वभाव, वोधि दुर्लभ अने स्वतत्वनुं चिंतनरुप द्वादश अनुप्रेक्षा, - भावना कही छे.
(१८५) भावनाभवनाशिनि अर्थात् आवी उत्तम भावनाथी भव संततिनो क्षय थइ जाय छे। अने शांतरसनी वृद्धिथी चित्तनी