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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
शांति - प्रसन्नता थाय छे, माटे मोक्षार्थी जनोए अवश्य उक्त भावनाओनो अभ्यास कर्या करवो युक्त छे.
(१८६) गमे तेटली कळा प्राप्त थाय, गमे तेवो आकरो तप तपाय, अथवा निर्मळ किर्त्ति प्रसरे परंतु अंतरमां विवेक कळा जो न प्रगटी तो ते सर्व निष्फळज छे. विवेक कळाथी ते सर्वनी सफलता छे.
(१८७) विवेक ए एक अभिनव सूर्य या अभिनव नेत्र छे. जेथी अंतरमां वस्तु तत्त्वनुं यथार्थ दर्शन थाय एवं अजवाळु थाय छे माटे बीजी बधी जंजाळ तजीने केवळ विवेककळा माटे उद्यम करवो युक्त छे.
(१८८ ) सत् समागम योगे हितोपदेश सांभळवाथी या तो आप्त प्रणीत शाखना चिर परिचयथी विवेक मगटे छे.
(१८९) विवेकवडे सत्यासत्यनो निर्णय करी शकाय छे. ते विना हिताहित कृत्याकृत्य भक्ष्याभक्ष्य पेयापेय, उचितानुचित के गुणदोषनी खात्री थइ शकती नथी. विवेक वडेज असत् वस्तुनो त्याग करीने सद् वस्तुनो स्वीकार करी शकाय छे.
(१९०) जेम निर्मळ आरिसामां सामी वस्तुनुं वरावर प्रतिबिंब पडी रहे छे, तेम निर्मळ विवेकयुक्त हृदयमां वस्तुनुं यथार्थ भान थाय छे. जेम सूक्ष्म दर्शक यंत्रथी सुक्ष्म वस्तु सहेलाइथी देखी श-~