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________________ १७७ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. काय . तेम विवेकना अधिकाधिक अभ्यासथी सुक्ष्ममा सुक्ष्मने दुरमा दुर रहेला पदार्थनुं यथार्थ भान थइ शके छे माटेज ज्ञानी पुरुषो विवेक रहीतने पशु माने छे. • (१९१) विवेकी पुरुष आ मनुष्य भवना क्षणने पण लाखेणो (लक्ष मुल्य अथवा अमुल्यं) लेखे छे. (१९२) जेम राजहंस पक्षी क्षीर नीरने जुदां करीने क्षीर मात्र ग्रहे छे. तेम विवेकी पुरुष दोष मात्रने तजी गुण मात्रने ग्रहण करेछे. (१९३) मननी क्षुद्रता (पारका छिद्र जोवानी बुद्धि) मटवाथीज गुण ग्राहकता आवे छे. गुण गुणिनो योग्य आदरसत्कार करवारुप विनयगुणथी गुण ग्राहकता वधती जाय छे, (१९४) विनय सर्व गुणानुं वशीकरण छे. भक्ति या चाह्यसेवा, हृदय प्रेम या बहुमान सद्गुणनी स्तुति अवगुणने ढांकवा अने अवज्ञा, आशातना, हेलना, निंदा, के खिसाथी दूर रहे, एवा विनयना मुख्य पांच प्रकार छे. (१९५) जेम अणधायेला मेला वस्त्र उपर मेल चडी शकतो नथी. अथवा विषम भुमिमां चित्र उठी शकतुं नथी. तेम विनयादि गुण हिनने सत्य धर्मनी प्राप्ती थइ शकती नथी. १२
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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