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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. पण गर्व करवो युक्त नथी तो नजीवा शरीररुप लावण्यादिक अशुद्ध पर्यायोवडे तो गर्व करवोज केम घटे?
७. गुरु महाराज शिष्यने उपदेशेछे के भाइ तुं दीक्षित छर्ता खोत्कर्ष वडे संयमनो क्षोभ करीने गुण रत्नोनो व्यर्थ विनाश शा माटे करे छे ? गमे तेटला गुणने पामेलो संयमी स्वगुणनो गर्व करबाथी हानिज पामे छे.
८. स्पृहा रहित अने अखंड अनंत ज्ञाननाज नमुनारूप योगी जनो स्व उत्कर्ष अने पर अपकर्ष संबंधी सर्व कल्पनाओथी मुक्तज रहे छे. स्व स्वरूपमां स्थित योगीजनो केवल निःस्पृह होवाथी
आप वडाइ के परनिन्दा करताज नथी. तेओ तो परम सुखमय निवृत्ति मार्गज पसंद करे छे, पर परिणतिरूप कुत्सित प्रवृत्ति तेमने असंद पडतीज नथी.
॥ १९ ॥ तत्त्वदृष्टयष्टकम् ॥ रूपे रूपवती दृष्टि, दृष्ट्वा रूपं निमुह्यति ।। मज्जत्यात्मनि नीरुपे, तत्त्वदृष्टिस्वरूपीणी ॥१॥ भ्रमवाटी बहिर्दृष्टि, भ्रमच्छाया तदीक्षणं ।।