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________________ ७४ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ ज़ो. अभ्रान्तस्तत्त्वदृष्टिस्तु, नास्यां शेते सुखाशया॥ २॥ प्रामारामादि मोहाय, यदृष्टं बाह्ययादृशा ॥ तत्त्वदृष्ट्या तदेवांत, नीतं वैराग्य संपदे ॥३॥ बाह्यदृष्टिः सुधा सार, घटिता भाति सुंदरी ॥ तत्त्वदृष्टेस्तु सा साक्षा, द्विण्मूत्रपिठरोदरी ॥ ४ ॥ लावण्य लहरी पुण्यं, वपुःपश्यति बाह्यदृक् ॥ तत्त्वदृष्टिः श्वकाकानां, भक्ष्यं कृमिकुलाकुलं ॥५॥ गजाश्वैर्भूपभवन, विस्मयाय बहिर्दशः॥ तत्राश्वेभवनात्कोअपि, भेदस्तत्त्वदृशस्तुन ॥ ६ ॥ भस्मना केशलोचेन, वपु धृतमलेन वा ॥ महान्तं बाह्यग्वेत्ति, चितसाम्राज्येन तत्त्ववित् ॥७॥ न विकाराय विश्वस्यो, पकारायैवनिर्मिताः ॥ स्फुरत्कारुण्यपीयूष, वृष्टयस्तत्त्व दृष्टयः ॥ ८॥
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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