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जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
· ॥ रहस्यार्थ ॥ १. बाह्यदृष्टि जीव पुद्गलिक रूप जोइने मुंझाय छे-मूढ बनी जाय छे, पण अरुपी एवी तत्त्व दृष्टि तो निर्मल निराकार आत्म स्वरूपमांज मन थइ रहेछ, वाह्यदृष्टि बहार दोडे छे. अने अंतरदृष्टि स्वभावमा रमे छे. ___ २. वाह्यदृष्टि ए भ्रमनी वाडी छे अने बाह्यदृष्टिथी जोवु ए भ्रमनी छाया छे. तेमां भ्रांति रहित तत्त्वदृष्टि तो सुखनी आशाथी सूतो नथी. पण पुद्गलानंदी-बाह्यदृष्टि जरूर तेमां सुख बुद्धिथी विश्रांति करे छे.
३. गाम, आराम आदि बाह्यदृष्टिथी जोतां जरुर जीवने मोह उपजावे छे, पण तत्त्वदृष्टिथी जोता तो ते वैराग्यरसनी वृद्धि माटेज थाय छे. वाह्यद्यष्टि जीव मधनी मांखीनी जेम तेमां मुंझाइ मरे छ, पण तत्त्वदृष्टि तो साकरनी मांखीनी पेरे मिष्ट स्वाद लइ तेमांथी सुखे मुक्त थइ शके छे. तत्त्वदृष्टिपणुं जागतां चक्रवर्ती पोते पोतानी सकल समृद्धिने सहजमां तजी दइ संयमनो स्वीकार करे छे. परंतु मूढ दृष्टि एवो भीखारी पोतार्नु रामपात्र पण त्यजी शकतो नथी, ए सर्व मोहनोज महिमा छे.
४. वाह्यदृष्टि जीव, मुंदरी (स्त्री) ने अमृतना निचोलथी घ