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श्री जैनहितोपदश भाग २ जो.
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२० धन्य कृत पुन्य एवो परहितकारी पुरुष धर्मनुं खरूं रहस्य सारी रीते समजी प्राप्त करीने निस्पृह चित्त छतो पोताना पूर्ण पुरुपार्थयोगे अन्य जनोने पण सन्मार्गमां जोडी दे छे, अर्थात् धर्मनुं खरु रहस्य जाणनार अने निस्पृहपणे पोतानुं छतुं वीर्य फोरवनार एवा परहितकारी पुरुषोनीज वलिहारी छे, तेवा धन्य पुरुषो स्वपरनुं हित विशेषे साधी शके छे. तेवा भाग्यशाळी भव्यो धर्मने सारी रीत दीपावी शके छे तेथी ते धर्मरत्नने अधिक लायक छे. केवळ स्वार्थ वृत्तिवाळाथी तेवो स्वपर उपगार संभवतो नथी. तेथी निःस्वार्थ - त्ति राखवानी खास जरुर छे, निःस्वार्थी जनो परोपकारने पोताना शुद्ध स्वार्थथी भिन्न समजता नथी. अर्थात् परोपकारने पोतानुं खास कर्तव्य समजीने कोइनी प्रेरणा विना स्वभाविक रीतेज से छे.
२१ लब्ध लक्ष पुरुष सकळ धर्मकार्यने सुखे समजी शके छे अने ते दक्ष - चंचळ तथा सुखे केळवी शकाय एवो होवाथी थोडा वखतमांज सर्व उत्तम कलामां पारगामी थइ शके छे. आवो कार्य दक्ष पुरुष धर्मरत्नने लायक होइ शके छे. परंतु अकुशल, अशिक्षणीय अने मंद परिणामी तेमज अति परिणामी जनो धर्मने लायक थइ शकता नथी. केमके तेमनी नजर सापेक्षपणे सर्वत्र फरी वळती नथी. तेथी तेओ सत्य धर्मथी बाहेर रह्या करे छे, अर्थात् धर्मना खरा रहस्यने पामी शकताज नथी. माटे धर्मार्थी जनोए कार्यदक्ष अने कर्तव्य परायण थवानी पण परी जरुर छे, "