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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
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मय तपमां मंद - आदर न थवुं यथाशक्ति उभय तपमां अवश्य उद्यम करवो.
६. जे तप करतां, ब्रह्मचर्यंनी गुप्ति ( शील संरक्षण), वीतरागनी भक्ति, तथा कषायनी शान्ति सुखे सधाय छे, तेमज जिनेश्वर प्रभुनी पवित्र आज्ञानुं प्रतिपालन थाय छे, तेनुं जरापण उल्लंघन थतुं नथी तेवो तप शुद्ध-दोष रहित होवाथी अवश्य आचरवा योग्य ज छे, तपस्या करवावालाए उत्तम फल मेळववा उपरनी वाबत लक्षमां राखवा योग्य छे. केमके ते प्रमाणे वर्ततांज तपस्या लेखे थाय छे, एटले आत्मा निर्मल थतो जाय छे, अने अंते सर्व कर्ममलनो क्षय थतां अक्षय सुख संप्राप्त थाय छे.
७. तप करतां लगारे दुर्ध्यान थाय नहिं, स्वाध्याय ध्यानादिक संयम - योगमां खामी आवे नहिं, तेम धर्मकार्यमा सहायभुत थनारी इंद्रियो समूलगी क्षीण थइ जाय नहिं, एम खास उपयोग राखीने स्वशक्ति गोपव्या विना समताभाव लावीने श्री तीर्थंकर देवे पण सेवेला तपनो दरेक मोक्षार्थीए अवश्य आदर करवो.
८. अहिंसादिक पांच महाव्रत अने आहारशुद्धि विगेरे मूल तथा उत्तर संयम गुणोनी श्रेणिरुप श्रेष्ठ साम्राज्यनी सिद्धि करवा माटे महामुनि पण उभय प्रकारना तपनुं यथार्थ सेवन करवामां प्रमाद करे नहि. केमके संयमवडे जोके नवां कर्म रोकाय छे, पण सं