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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १२९ नयनी अपेक्षावाळो - सापेक्ष नयज प्रमाणभूत थाय छे माटेज सर्व नयाश्रितता श्रेष्ठ छे. ४. सर्व न यज्ञ पोते सापेक्षदृष्टि होवाथी तटस्थ रहि शके छे, अथवा अन्यजनोतुं समाधान करी शकवाथी उपकारी नीवडे छे, पण पृथक् - एकांत-निरपेक्ष नयमां आग्रहवंतने तो अहंकार जन्य पीडा अथवा भारे क्लेशज पेदा थाय छे, केमके तेवा कदाग्रहीने स्वपक्षनुं मंडन करवानो अने परपक्षनु खंडन करवानो सहज गर्व आवे छे अने तेम करवा जतां सहेजे क्लेश बधे छे. एवं क्लिष्ट परिणाम सापेक्षदृष्टि एवा सर्व नयज्ञने कदापि आववानो संभव नथी. परहित पण एमज साधी शकाय छे. माटे सर्व नयज्ञताज श्रेष्ठ छे. स्त्र ५. सर्व नयज्ञनेज धर्मचर्चाथी घणो लाभ लइ शके छे. वाकी वीजाने तो शुष्कवाद के विवादथी लाभने बदले उलटये तोटो (गेरलाभ ) ज थाय छे. ६. जेमणे सर्व नयाश्रित धर्म प्रकाश्यो छे अने ते जेमने अंतरमां परिणम्यो छे तेमने अमारो वारंवार प्रणाम छे, सत्य - सापेक्ष कथन अने कारक ए उभयनी बलिहारी छे. ७-८ निश्चय अने व्यवहार तेमज ज्ञान अने क्रियामां एकान्त पक्ष तजीने जेमणे स्याद्वादनो स्वीकार कर्यो छे एवा तत्वदृष्टि, पक्षपात वर्जित, अने सर्व नयनो आश्रय करनारा परमानंदी ९
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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