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श्री जैनहितोपदेव भाग २ जोर १११ ४२ सारभूत एवा सद् विवेकज सेवन कर. : ... . . “सदसद् विवेचनं विवेकः' . .. . . - “सत्यासत्यनो सम्यग् विचार पूर्वक निर्णय करलो के आतो तस्वभूतज छे अने आ अतत्त्वरुप छे. आतो संपूणज छे. अने आ-अपूर्ण छे. आतो आदरवा योग्यज छे, अने आ तजवा योग्य छे. आतो हितकारीज छे, अने आ अहितकारी छे. आq कार्वज उचित छ, अने आबु अनुचित छ, आमांज लाभ समायेलो छे, आमां नथीज अथवा गेरलाभ छे आतो गुणवानज छे अने.आ नधी. अथवा दोषवान् छ, आची वस्तुओज भक्ष्य छे अने आवी अभक्ष्य छे. आवी वस्तुओज पेय (पीवा योग्य ) छे अने आवी अपेय छे. आवा लक्षणवाळा जीवज होय छे, अने आवां लक्षण विनाना अजीवज होय छे. आनुं नामज पुण्य, अने आनुं नाम ते पाप, आनुं नाम ते आश्रव अने आनुं नाम संवर, आवा 4रिणामथी कर्मनो बंध थाय छे, अने आवा परिणामथी निर्जरा अथवा कर्मक्षय मोक्ष थाय छे. आवी रीते आत्महित संबंधी कंइक वारीकताथी अवलोकन करतां विवेक दीपक प्रगटे छे. जे अनादि अज्ञान अंधकारनो नाश करी नांखे छे अने घटमां समाधिकारक ज्ञान प्रकाशने विस्तारे छे. ..
अंतर राग, द्वेष, अने मोहादिक महा विकारोने लक्षमा राखीने