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११२ः . श्री जनहितोपदेश भाग र मा. जेम निर्विकारता प्राप्त थाय तेम मध्यस्थपणे विचार पूर्वक वर्तदायी अने समताभावित सत् पुरुषोना सतत, समागमयी अनादि अविवेकना पण अंत अवि छे अने हिताहित यथार्य भान करावनार विवेकनो उदय धाय छे.. जेने विवेकनी खेवना नथी तेने ते प्राप्त पण थतों नथीः ', ".:. :: ..."
सद्विवेके जागवार्थी जीवने सत्य वस्तुचें यथार्थ भनि यता खोटी असत्य वस्तु उपरथी सहेजे अभाव-अरुचि पैदा थाय के अने तेम थवाथी साची वस्तु उपर जोइए - तेवीं रुचि, प्रीति अने श्रद्धा जागवाथी तेनो सचोट स्वीकार थई शके छे. अभ्यास अभ्यासने वधारेज छे तेथी विवेकवंत 'आगळ उपर गुणमा सारो वधी शके छे. विवेक शून्यने एवो संभवज नथी. माटे प्रथम रागद्वेषादिक अंतर विकारोने हठावी मध्यस्थतादिक गुणनो अभ्यास करीने आस्मार्थीजनोए विवेक जगाववानी जरुर छे. श्रीमद् यशोविजयजी महाराजाए यथार्थ कयुं छे के-रवि दूजो तीजो नयन, अंतर भावि प्रकाश । करो धन्ध सब परिहरी, एक विवेक अभ्यास ॥ अंतरमा प्रकाश करीने पोतानी गुण-संपत्तिने प्रगट वतावनार विवेक बीजो सूर्य अने त्रीजु लोचन छे. एम समजीने शाणाजनोए ओर उपाधिने तजीने एक विवेकनोज अभ्यास करवो उचित छे. विवेकथी सर्व गुणनी सहजे प्राप्ति थशे, पण प्रथम अविवेकनां कारणो सदंतर दर करवां जोइये.