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________________ ८३ - श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. २. जेमनी भृकुटी फरतां पर्वतोनो पण भुको थइ जाय एवा भूपोने विषमकर्म योगे भिक्षा सरखी पण मलती नथी. दैव विपरीत छते मोटा भूपालने पण पेट भरवाने फोफां मारवां पडे छे. ३. उत्तमजाति अने चतुराइ रहित छतां अत्यंत अनुकूल कर्म योगे क्षणवारंमां रांक पण एक छत्र राज्य पामे छे. प्रवल पुन्यनो उदय थये छते भीखारी जेवो माणस पण विशाल राज्यवालो राजा थइ पडे छे. ४. कर्मनी रचना उंटना वरडानी जेवी वांकीज छे केमके, जातिकुल, बुद्धि, बल, ऐश्वर्य प्रमुखमां प्रगट विषमता देखाय छे, सर्व कोइने ते एक सरखा होतां नथी. पूर्वकृत कर्मअनुसारे ते सारा नरलां के वधारे घटाडे होइ शके छे. कर्मनी विचित्रता प्रमाणे फल. नी विचित्रता समजनारा मुनिजनाने तेवी विषम स्थितिमां रतिप्रीति होवी घटे नहिं, तेमने प्राप्त सुख दुःखमा समभावज राखवो युक्त छे. ५. अहो ! अति आश्चर्यनी वात छे के उपशमश्रेणि उपर आरूह थयेला श्रुतकेवळी (चौद पूर्वधर ) मुनियो पण दुष्ट कर्मना योगे पतित थइने अनंत संसार परिभ्रमण करे छे. ज्यारे आवा समर्थ पुरुषोने पण कर्मविपाक छळे छे तो बीजा सामान्य माणसार्नु
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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