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८२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. विषमा कर्मणः सृष्टि, ईष्या करमपृष्ठवत् ॥ जात्यादि भूति वैषम्या, का रति स्तत्र योगिनः॥४॥ आरूढा प्रशमश्रेणिं, श्रुत केवलिनो पि च ॥ भ्राम्यन्ते ऽनन्त संसार, महो दुष्टेन कर्मणा ॥५॥ अर्वाक् सर्वापि सामग्री, श्रांतेव परितिष्ठति ॥ विपाकः कर्मणः कार्य, पर्यंत मनुधावति ॥६॥ असाव चरमावर्ते, धर्म हरति पश्यतः ॥ चरमावर्ति साधोस्तु, छलमन्विष्य हृष्यति ।। ७ ॥ •साम्यं बिभर्ति यः कर्म, विपाकं हृदि चिंतयन् ।। स एव स्याचिदानन्द, मकरन्द मधुव्रतः ॥८॥
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॥ रहस्यार्थ ॥ सर्वे जगनुओ उदित वर्माऽनुसारेज सुख दुःख पामे छे जामीजनारा मुनि दुःखने पामीन दीन थता नयी तेम सुखने कनेकित थता नयी. मुनि समजे छ के जगत मात्र कर्म विषा