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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
पछी योग' रुंधी थयो ते अयोगी, भाव शैले सिताए' अभंगी; पंच लघु अक्षरे कार्यकारी, भवोपग्रही कर्म संतति विडारी. ३७ समश्रेणे एक समये पहोत्या जे लोकांत, असमाण गति निर्मळ चेतन भाव महांत; चरम त्रिभाग विहीन' प्रमाणे जसु अवगाह, आम भेद अरुप अखंडा नंदावाह.
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जीहां एक सिद्धात्म तिहां छे अनंता, अवन्ना अगंधा नहि फासमंता आतमगुण पूर्णतावंत संता, निरावाध अत्यंत सुखास्वाद वंता. ३९ कर्ता कारण कारज निज परिणामिक भाव, ज्ञाता ज्ञायक भोग्य भोग्यता शुद्ध स्वभाव; ग्राहक रक्षक व्यापक तन्मयताए लीन, पूरण आतम धर्म प्रकास रसें लयलीन.
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द्रव्यथी जीव चेतन अलेशी, क्षेत्रथी जे असंख्य प्रदेशी; उत्पाद वळी नास ध्रुव काळधर्म, शुद्ध उपयोग गुण भाव शर्म. स्याद्वाद आम सत्ता रुचि समकित तेह, आतम धर्मनो भासन निर्मळ ज्ञानी जेह;
१ मन, वचन अने काया २ मेरुपर्वतनी जेवी निश्ळता, शैलेशीकरण. ३ अघाति. ४ अस्पर्शमान, ५ . ६ वर्ण गंध अने स्पर्शरहित, अरुपी शुद्ध सहज स्वरुपी.
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