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________________ १३८ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. भावस्तोमपवित्रगोमयरसै लिप्तैव भूः सर्वतः॥ संसिक्ता समतोदकैरथपथि न्यस्ता विवेक स्त्रजः॥ अध्यात्मामृतपूर्णकामकलशश्चक्रेऽत्र शास्त्रे पुरः॥ पूर्णान्दघने पुरं प्रविशति स्वीयंकृतं मंगलम् ॥ १६ ॥ c . १६. पूर्णानंदघन पोते अप्रमाद नगरमा प्रवेश कर्ये छते, पवित्र भावनाओ रूपी गोमयथी भूमि लिंपेली छे, चोतरफ समतारुपी जळनो छंटकाव करेलो छे, मार्गमा विवेकरूपी पुष्पनी माळाओ पाथरेली छे, अने अध्यात्मरुपी अमृतथी भरेलो मंगल कलश आ शास्त्रद्वाराज आगळ करेलो छे. एम विविध उपचारथी निज भाव मंगल कयु छे. गच्छे श्री विजयादिदेव सुगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः॥ प्रौढिं प्रोढिम धाम्नि जीतविजयपाज्ञा परामैयरुः॥ तत्सातीर्थ्यभृतां नयादि विजय प्राज्ञोत्तमानां शिशोः॥ श्रीमन् न्याय विशारदस्य कृतिनामेपाकृतिः प्रीतये ॥१७॥ -
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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