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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १६३ धर्म सेवन द्वारा स्वनाम सार्थक करवाने माराथी वनतुं साहस खेडवा वाकी राखीश नहि. तारी समयोचित किंमती सहायथी हुँ मारी धारणामां अवश्य फतेहमंद नीवडीश. सुमति–तथास्तु ! किंतु आपनो पवित्र हेतु संपूर्ण सिद्ध करवाने सबळ सहायभूत पूर्वोक्त धर्मर्नु निश्चय अने व्यवहारथी स्वरुप कंइक वारीकीथी समजी लेवानी आपने जरुर छे. चारित्र-व्यवहार धर्म अने निश्चय धर्मनो मुख्य शो तफावत छे अने तेथी शो उपकार थइ शके छ ? सुमति-व्यवहार धर्म साधन छे, अने निश्चय धर्म साध्य छे. शुद्ध-निश्चय धर्म साक्षात् प्राप्त करवाने व्यवहार धर्म पुष्ट कारणभूत छे. व्यवहार साधन विना निश्चय साधी शकाय नहि. चारित्र०—पूर्वे वतावेलुं धर्मर्नु स्वरुप मुख्यताथी केा प्रकार, छे ? __ सुमति-धर्मर्नु पूर्वोक्त स्वरुप मुख्यताथी व्यवहारनी अपेक्षाये कहेलुं छे तेथी तेमां निश्चयर्नु स्वरुप केवळ गौणपणेज रह्यं छे. चारित्र-त्यारे हवे मने निश्चय धर्मनुं कंइक स्वरुप समजावो. मुमति-सर्वथा कर्म कलंक रहित निर्मळ ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने वीर्य (शक्ति) रुप आत्मानो सहज (निरुपाधिक) स्वभाव
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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