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श्री जैवाहिन्नपदेश भाग जो १५. सानुगत-शिष्ट सदाचारी सत्पुरुषोना पगले चालनार.. पोते पण अनुक्रमे सत्. चारित्रना परिशीलनथी सारी पंक्तिमा आनी ___ १८. विनयवंत-पद, अहंकारादिक दोषने त्यजीने संत पुरु
पोनी सेवायी या साधुजनोनी हित शिखामणने हृदयमा धरवायी विनय जनता आवे छ __. १९. कुतजाण-करेला गुणना जाण माणसो पोताना उपकारी माता, पिता, स्वामीके गुवोदिकना वनी शके तेटला गुणानुवाद क-. रवा चूकता नथी. कृतज्ञ माणस उपकारीना हितने माटे बने तेटलो स्वार्थनो भोग आपे छ. . .
- २०. परहितकारी-सहुने स्वहित व्हावं छे एम समजीने स्वहितनी परे परहित करवामां पण जेने प्रीति छे ते मनथी, वचनयी के कायाथी कोइर्नु अहित थाय एवां कार्ययी दूर रहेवानोज अने हित थाय एवांज शुभ कार्यमा जोडावानो प्रयत्न करे छे.
२१. लन्धलक्ष-सर्व बाबतमा जेनी दृष्टि आरपार प्होंची शके छे एवो चकोर पुरुष सुखेथी स्वहित समजीने तेने विवेकयी साधी शके छे. उक्त २१ गुणयी भूषित भव्य स्वहित साधवाने संपूर्ण अ. धिकारी छे. स्वहित साधवाना अनेक मार्ग पूर्वे प्रसंगे प्रसंगे वताव्या छे, एम जेणे यत्नयी स्वहित-स्व कर्तव्य साध्युं छे तेने परहित पण