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________________ : १२४ श्री जैनहितोपदश भागे. २. जो. . आचार विचारने आदरी आपणे परम उपकारी धर्म महाराजनी कृपाथी प्राप्त करेल सर्व शुभ सामग्रीनी सफ़ळता करी. शकीये एवो सत् पुरुषार्थ सेववो एज आपणुं मुख्य कर्तव्य छे. सर्व प्रमाद रहित सत् पुरुषार्थ उपरज़ आपणी, आपणा साधर्मीओनी, तेमज समस्तजनोनी खरी उन्नतिनो आधार छे. ए वात खुब लक्षमा राखीनेज आपणुं व्यवहार तंत्र चलाव योग्य छे. इत्यलम्. • सुमति अने चारित्रराजनो सुखदायक संवादः __प्रेक्षक भाइयो अने ब्हेनो ? आजे हुँ तमने एक अतिवोधदायक संवाद संभळाववा इच्छंछ तेथी प्रथम तेमां खास उद्देश कराएलां पाबोनी तमने कंइक विशेष समज आपवी दुरस्त धारूं छु. अने आशा राखंछ के ते सर्व वात तमे लक्षमा राखी तेमांथी एक उत्तम प्रकारंनो वोध ग्रहण करशो. . - ___ एकान्त हितबुद्धिथीज मेराइने तमने आ वोधदायकं प्रबंध संभळाववा मारी खास उत्कंठा थइ आवी छे ते कंइक तमारा भाग्य. 'नीज भली निशानी होय एम ई मार्नु छ. हवे हुँ: मुहानी वात तमने . जणांq छु: दरेक आत्माने पोताना सारा नरसा चरित्र (आचरण) ना प्रमाणमा मतिर्नु तारतम्य होयज छे. छतां सामान्य रीते सारां
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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