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१६८ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. धर्म रत्ननी प्राप्तिने माटे अवश्य प्राप्त करवा योग्य
गुणो अथवा धर्मनी खरी कुंची. 'जेन चिंतामणी रत्न भाग्यहीन जीवोने मळ, मुस्केल छे तेम अक्षुद्रतादिक उत्तम गुणरहित जनोने पण धर्मरत्न मळवू मुश्केलज छे.
'अक्षुद्रतादिक एकवीश गुणोवडे युक्त जीवने जिनमतमा धर्म रत्नने योग्य कहेलो छे. माटे ते गुणोने उपार्जवा धर्माभिलाषीजनोए जरुर यत्न करवो घटे छे.' उक्त वातनुं समर्थन करता छता श्रीमद् यशोविजयजी महाराज आ प्रमाणे कथे छे
" एकवीश गुण परिणमे, जास चित्त नित्यमेव धर्म रत्नकी योग्यता, तास कहे तुं देव." १ उक्त एकवीश गुणोनी नोंध आ प्रमाणे आपेल छ के" क्षुद्र नहिं वळी रुपनिधि, सौम्य जनप्रिय धन्न क्रूर नहिं भीरु वळी, अशठ सुदखिन्न. लजालुओ दयालुओ, सोम दिहि मज्जथ्या गुणरागी सतकथ्थ, सुपख्ख दीर्घदर्शी अथ्थ. विशेषज्ञ वृद्धानुगत, विनयवंत कृत जाण; 'परहितकारी लब्ध लक्ष, एम एकवीश प्रमाण.