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________________ जैनहितोपदेश भाग ३ जो. २१ जेम स्फटिक रत्नने रातुं पीलुं लीलें के कालुं फूल लगाडवाथी ते लगाडेला फूलना प्रसंगथी आसुः रत्न तद्रूपज थइ जाय छे, तेम जीव पण उपाधि संबंधथी जड जेवो बनी जाय छे, पुण्य पाप राग द्वेषादिक जीवने केवल उपाधिरूपं छे. ज्यां सुधी जीवने तेनो संबंध रहे छे त्यां सुधी ते तेनुं शुद्ध स्वरूप संपूर्ण रीते प्रगट करी शकतो- : ज नथी. पण तेनो संपूर्ण वियोग थये छते आत्मानु शुद्ध स्वरूप : सहज प्रगट थइ रहे छे. ७ मोहना क्षयथी सहज आत्मसुखने साक्षात् अनुभवतां छता पुलिक मुखने साधुं मिष्ट माननारा लोकोनी पासे तेनुं कथन करतां आश्चर्य लागे छे. कैमके पुगलानंदी जीवने आत्मिक सुखनो साक्षात् अनुभव थइ शकतो नयी. अने साक्षात् अनुभव थया विना तेनी प्रतीति पण आवी शकती नयी. तेथी निर्मोही पुरुष अधिकार मुजवज उपदेश आपे छे. ८ जे महाशय शुद्ध समज पूर्वकं समस्त सदाचारने सेवा-उजमाल रहे' छे ते प्रयोजनंविनानां परभावमा शा साटे. झाय ? जेम निर्मल आरीसामां वस्तुनुं यथार्थ दर्शन यह शके छे तेम निर्मल ज्ञान - दर्पणयोगे आत्मा स्वकर्तव्य सस्यन् समजीने तेनुं निरभिमानताथी आराधन करी शके छे. निर्मल ज्ञानवडे स्वे कर्तव्यनुं स्वल्प निर्वा रीने जे शुभाशय 'तेनुं सेवन करे छे ते अवश्य फतेहमंदः नीवढे छे. 1
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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