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११४ श्री जैनहितोपदेवा भाग २ जो. सदाचार ), अने असंगता मूर्छारहित प[, सहज' संतोष, (निःस्पृहता) विगेरे सव्रतो. सारी रीते सेवन करवाथी सद्गतिनी अवश्य प्राप्ति थाय छे. एम सर्व शास्त्रकारो एके अवाजे कहे छे. आ शिवाय ' अहिंसा परमो धर्मः'ए मुद्रालेख खास लक्षमा राखीने, मांस, मदिरा, मध, माखण, मूलक-मूळादिक भूमिकंद रिंगण विंगण आदिक कामोद्दीपक अने बहुवीज फळ तथा रात्रिभोजन विगेरे अनेक अभक्ष्य वस्तुओर्नु पण शास्त्रकारोए वर्जन करवा भार दइने को छे. आ प्रमाणे अहिंसादिक महा व्रतोने पुष्टिकारी जे जे नियमावळी शास्त्रकारोए धर्मनी वृद्धि माटे वतावी छे. ते ते लक्षमा लइने दरेक धर्मावलंबी सज्जनोए तेनो यथाशक्ति अमल करवो खास 'अगत्यनो छे. केमके यथाशक्ति यतनीयं शुभे-स्वपर हितकारी शुभ कार्यमां छती शक्ति नहि गोपवतां यथाशक्ति यत्न करवो ए आपणी फरजज छे.
४४ मनुष्य भव फरी फरी मळवो मुश्केल छे, एम
समजी शीघ्र स्वहित साधीले. मनुध्य भवनी दुर्लभता एटला माटे स्वीकारवामां आवी छे के . ते वीना कोई पण वीजी गतिमां सम्यग् ज्ञान-क्रियानु अथवा सम्यग् दर्शन, ज्ञान अने चारित्र रुपी रत्नत्रयीनुं यथार्थ आराधन