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१३२ . श्री जैनहितोपदेश भाग २ जोः
'' चारित्र०—मारांमां जेटली पात्रता हशे तेटला तों ते अवश्य फळदायी थशे साथे एवी पण खात्री छे के तारी सतत संगतिथी मारामां पात्रता पण वधती जशे, तथा पात्रताना प्रमाणमा - फळनी. अधिकता थतीज जाशे. ... सुमति–हुँ अंतःकरणथी इच्छु छु के आपने संपूर्ण पात्रताः प्राप्त थाओ, अने आप संपूर्ण मुखमय परमपदना पूर्ण अधिकारी थाओ! __ चारित्र-तारा मुखमांज अमृत वसे छे. केमके तारी सार्थना आ वार्ता विनोदमां मने एटलो तो स्वाद आवे छे के तेनी पासे स्वर्गनां सुख पणं नहिं जेवां छे. जेने तारो संग थयो नथी तेनुं जीच्युं हुं धूळ जेवू लेखं छु.
सुमति- म्हारी शोक्य-व्हेने जो आपने अनुभव सुखडी चखाडी नहोत तो आपने मारो स्थायी समागम करवानो विचारज क्यांथी थात ? केम खरुंने ? हुँ,धारु छु के.आप तेना स्वभाविक गुणोने स्वप्नमां पण भूलशो नहिं. सामी वस्तुथी संपूर्ण कंटाळ्या विना अमुकमां पूर्ण त्रीति बंधाती नथी. ... .. ... ., . ..
चारित्र-कुमतिथी हुँ रखूर्व कंटाळ्यो छु ए निर्विवाद छे, कुमतिना कुसंगवडेज हुँ आनी अनुपम मुख-संगतिधी चूक्यो छु तिथी ते वात हुं स्वप्न पण केम भूली शकुं! हंशे हवे एक क्षण