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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. - हीन संघयण छतां जे एक वर्षनी दीक्षा बरावर पाळवी ते उत्कृष्ट __ संघयणनी सहस्र वर्षेनी दीक्षा बराबर समजवी युक्त छे. एम विचा
री तप, जप, ज्ञान, ध्यान विगेरे सदनुष्ठानमां सदा सावधानपणे वर्तवामांज स्वपरहित समायेलं जाणवू.
चारित्रथी चलायमान थइ भ्रष्ट थयेलो जीव जीवतो छतो मूआ बरोवर छे. अने चारित्र संयुक्त आत्मा मूआ छतां उभय लोकमा अमर थइ रहे छे. उक्त हेतुथी चारित्र गुणनी पुष्टि माटे शास्त्रकार भार मुकीने उपदिशे छे के
"सकल मदरहित, देवमान्य, सर्व तीर्थनाथोए सादर सेववायोग्य महा गुणसागर पंडितोए सेवित, मुक्ति सुखन अवध्य वीज, निर्मळ गुणनिधान, सर्व कल्याण, मूळ कारण, अने सकळ विकाररहित ए, निर्मळ चारित्र हे भव्यो ! तमे भावथी भजो, जेथी अक्षय अनंत सुखने तमे सहजे वरो."
७ इंद्रियोर्नु दमन कर. . नायक एवा मने रेला इंद्रिय-चोरोए धर्म धन- हरण करीने बापडा लोकोने आकुळव्याकुळ करी मूक्या छे. तेथी तेमने वश करवाने भगीरथ प्रयत्न करवानी जरुर छे. अन्यथा ते सर्वने वश करी जीवनी भारे दुर्दशा करशे.