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श्री जैनहितोपदश भाग ३ जो.
(१०९) जेम इंधनथी अग्नि शांत थतो नथी, परंतु ते वृद्धिज पामे छतेम विषय भोगी इंद्रियो वन थती नथी परंतु तेथी तृष्णा व्यती जाय छे. अने जेन जेम विशेष विषय सेवन करवा जीव ल. लवाय छे तेम तेम अग्निमां आइतिनी पेरे कामाग्निनी वृद्धि या करे छे.
(११०) अनुभव ज्ञानीयोए युक्तम कहुं छे के ज्ञान-वैराग्यज 'घरमभित्र छ, काम भोगज परमात्र छे, अहिंसाज परम धर्म छे अने नारीज परम जरा छे ( केमके जरा विषयलंपटीनो शीघ्र पराभव : करे छे.) ___(१११) वळी युक्तज कहुं छे के तृष्णा समान कोइः व्याधि नथी अने संतोष समान कोइ सुख नथी.
(११२) पवित्र ज्ञानामृत या वैराग्यरसयी आत्माने पोषवाथी तृष्णानो अंत आवे छे अने संतोष गुणनी प्राप्ति अने वृद्धि थायछे.
(११३) संतोप सर्व सुखनुं साधन होवाथी मोक्षार्थी जनोए ते अवश्य सेवन करवा योग्य छे. अने लोभ सर्व दुःखनुं मूळ होवार्थी अवश्य तजवा योग्य छे. लोभ-बुद्धि तजवाथी संतोप गुण वाधे छे.
(११४) क्रोधादि चारे कपाय, संसाररूपी महाक्षनां उंडा मजबूत मूळ छे. संसारीनो अंत करवा इच्छनार मोक्षार्थीए कपाय