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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १२१ मजाय छे के पवित्र ध्यानना प्रभावशी आत्मानुभव जागे छे, अने तेथी श्री तीर्थकर नाम कर्म जेवो प्रकृष्ट पुण्य प्रकृति पण बंधाय छे.
५. आ प्रमाणे तीर्थकर पदवीनी प्राप्ति रुप ध्यानतुं फल जेथी प्रभवे छे. एवो वीस स्थानकादिक तप पण करवो युक्त छे. कष्ट मात्र रुप तप तो अभव्य जीवोने पण सुलभ छे. केवल संसारिक सुखने चाहनारा अभव्यने अयोग्यताथी परमार्थ-फलनी प्राप्ति घइ शकती नथी.
६-७-८. हवे ध्यान करवाने योग्य जीवनी केवी दशा होय छे, ते कंइ विशेषताथी जणावे छे. जितेन्द्रिय, धीर, प्रशान्त, स्थि. रतावंत, सुखासन, अने नाशिकाना अग्रभागे स्थापी छे दृष्टि जेणे, तथा ध्येय वस्तुमा चित्तने स्थिर वांधी राखवा रूप धारणाना अखंड प्रवाहथी जेणे वाह्य मनोवृत्तिनो शीघ्र रोध कयों छे, प्रसन्न, अप्रमत्त, अने ज्ञानानंदरूपी अमृतनो आस्वाद करनारा, तेमज अनुपम एवा आत्म-साम्राज्यनो अंतरमांज अनुभव करनारा, एवा ध्यानी-योगीनी बरोबरी करे एवो कोइ पण देवलोकमां के मनुष्य लोकमां नथी. सुखासन एटले ध्यानमां विघ्न न पडे एवा अनुकूल पद्मासनादिने सेवनार जने भवव सनानो क्षय यो छे, एटले विषय तCणा जेनी शमी गइ छे, अने नि:स्पृहताथी जगतथी न्यारो रही शान्तपणे सहज-स्वभावमा ज रही जे प्रमाद रहित परमात्म स्वरू