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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग र जोः १४१ • चारित्र-पाराज स्वार्थनी खातर केवळ परमार्थ दावे बताःवेला सत्यमार्गथी हु हवे चुकीश नहि, तुं पण तेमां सहायभूत थया करशें तो ते मार्गनुं सेवन करखं मने वहुं सुलटुं पडशे : मुमति—आपने समयोचित सहाय करवी ए मारी पवित्र फरज. छे, एम हुं अंतःकरणथी लेखं छु, तेथी हुं समयोचित सहाय करची रहीश...................... : . . . . . . : - -: ‘चारित्र-ज्यारे-तुं मारे माटे आटली वधी लागणी धरावे छे. त्यारे हुँ हवेथी सन्मार्ग सेवनमा प्रमाद नहि करूं, तारी समयोचित सहाय छतां सत्मार्ग सेवनमा उपेक्षा करे तेना पूरा कमनीवज. - मुमति- आपने वतावेलो सन्मार्ग सेवननो क्रम जेओ वेदरकाजीथीं आदरताज नथी तो कदापि सत्य चारित्रना आधिकारी थइ शकताज नथी. परंतु तेनी योग्य आदर करनारा तो तेना अनुक्रमे अधिकारी थइ शके छेज. माटे कदापि तेमां बेदरकारी करवीज नहिं. ... चारित्रः-उपरला सद् उपायने सेड्यावाद आत्माने शुं शुं करवू अवशिष्ट (वाकी) रहे छ ? अने उक्त उपायथी आत्माने शो साक्षात् लाभ थायं छे ? . .. . ... .. .. . ...: 'मुमति, उक्त उपायनी यथार्थ सेवन कर्या वाद पण आत्माने करवानुं बहुज वाकी रहे छे. आर्थातो हृदय-भूमिकानी शुद्धि थायछे,
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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