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१५८ श्री जैनहितोपदेश भाग ३. जो.
(९१) वैराग्य रसथी अनादि काळनो रागादिकनो ताप उपशमे छे, तृष्णा शांत थाय छे, अने ममत्त्वभाव दूर थाय छे, यावत् मोहर्नु जोर नरम पडे छे अने चारित्रमार्गनी पुष्टि थाय छे.
(९२) वैराग्य रसनी अभिद्धिथी एवी तो उत्तम उदासीन दशा छाय जाय छे के तेथी सर्वत्र समानभाव वर्ते छे. निंदा-स्तुतिमां तेमज शत्रु-मित्रमा समपणुं आववाथी हर्ष शोक थता नथी. अनुकूळ के प्रतिकूळ सर्व संयोगोमां समचित्तपणुं आवे छे तेथी स्वभावनी शुद्धि विशेषे थाय छे.
(९३) वैराग्यनी वृद्धिथी संसारवास कारागृह जेवो भासे छे अने तेथी विरक्त थइ पारमार्थीक सुख माटे यन करवा मन दोराय छे.
(९४) शांत रसनी पुष्टि थतां द्रव्य अने भावं करुणानी वृद्धि थाय छे अने शांत रसना समुद्र एवा वीतराग प्रभुना वचन उपर पूर्ण प्रतीति आवे छे जेथी गमे तेवी कसोटीना वखते पण सत्य मार्गथी चलायमान थवातुं नथी.
(९५) प्रशम रसनी पुष्टि थवाथी अपराधी जीवतुं मनथी पण प्रतिकूळ-अहित चितवन करातुं नथी आवी रीते विवेक वर्तनी मोक्ष महेलनो मजबूत पायो नंखाय छे अने सकळ धर्मकरणी मोक्ष साधकज थाय छे.