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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
१५७ वर्गने परमार्थ दावे पढावनारा उपाध्याय महाराजा, तथा पवित्र रत्नत्रयीना पालन पूर्वक अन्य आत्मार्थी जनोने यथाशक्ति आलंबन आपनारा मुनिराज महाराजा सर्वोत्तम लोकोत्तर मार्गना सेवनथी पूर्वोक्त परमात्म पदना पूर्ण अधिकारी होवाथी अनुक्रमे परमात्मपद पामीने संपूर्ण सिद्धरूप थाय छे.
(८८) जेओ संसारीक सुख संयोगोनी अनित्यता विचारीने संसारना सर्व संबंधथी विरक्त थर उदासीन भाव धारण करी परमात्म पंथने अनुसरवा कटिवद्ध थइ स्व स्वभावमां स्थित थइ सिद्ध परमात्माने अभेद भावे ध्यावे छे तेओ सर्व दुःखबंधनने छेदीने निचे सिद्ध दशाने प्राप्त थाय छे.
(८९) एवा महापुरुषोनो समागम मोक्षार्थीीं जीवोने परम आ-शीर्वादरुप छे एम सपजीने सर्व प्रमाद तजी सत्समागमनो बनतो लाभ लेवा चूकवुं नहिं, एवा सत्समागमथी क्षण वारमां अपूर्व लाभ संपादन थाय छे.
(९०) जेमनुं मन सत्समागम वडे ज्ञान वैराग्यमां तरवोळ रहे छे तेमनुं सुख तेओज जाणे छे. मियाना आलिंगनथी के चंदनना रसथी तेवी शीतळता वळती नथी एवी शीतळता वैराग्य रसनी ल्हेरीयोथी प्रभवे छे. जेम वैराग्यं रसनी वृद्धि थाय तेम प्रयत्न करवो जरुरनो छे.