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________________ १३२ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. संकल्प - विकल्प करतो नथी, वळी जे आ भव-समुद्रथी उद्विग्न छतो तेनो वेगे पार पामवा माटे नित्य प्रमादरहित प्रयत्न कर्या करे छे, जेणे लोक संज्ञा तजी छे एटले मिथ्या लोभ लालचमां नहिं तणातां जे सामा पूरे छे, जे शास्त्र दृष्टिथी सर्वभावने प्रत्यक्षनी पेरे देखे छे, जेणे मूर्छाने तो मारी नाखी छे तेथी कोइपण पदार्थमां प्रतिबंध करतो नथी, जेने शुद्ध अनुभव जाग्यो तेथी जेणे चोथी उदगारदशा धारी छे, अने केवळ ज्ञान पण जेने अति निकटज रहेलुं छे, जेथी अवध्य ( अचूक ) मोक्षफळ मळे एवो समर्थ योग जेणे साध्यो छे, वीतराग आज्ञानु अखंड आराधन करवारुप निश्चित याग जेणे सेव्यो छे, भावपूजामां जे तल्लीन थयो छे, श्रेष्ठ ध्यान जेणे साध्युं छे, तेमज समता पूर्वक विविध तपने सेवी जेणे कठीन कर्मनो पण क्षय कर्यो छे, अने सर्व नयमां जेणे समानता बुद्धि स्थापी छे, तेथी तटस्थपणे रही सर्वत्र स्वपरहित सुखे साधी शके छे, एवा परमार्थ - दश निष्पक्षपाती मुनिराज अनंतरोक्त ३२ अष्टक बडे स्पष्ट एव निश्चित तत्त्वने पामीने, परम पद प्रापक 4 ज्ञानसार ' ने सम्यम् आराधी शके छे. निर्विकारं निराबाधं, ज्ञानसारमुपेयुषां ॥ विनिवृत्त पराशानां, मोक्षोऽत्रैव महात्मनां ॥ ६ ॥
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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