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१४ श्री जैनहितोपदेश भाग २, जो भक्ति प्रभावनादिक उत्तम भूषणो तेणे. यत्नथी धारण करवानां छे. शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा अने, आस्तिकता रूप पांच लक्षण पण समकितवंत जीवमा अवश्य होवां जोइये. एटले के अपराधि उपर पण क्षमा, अविकारी एवा मोक्ष सुखनी अभिलाषा; संसारथी विरक्तता, दुःखी उपर दया अने वीतरागना वचननी पूर्ण प्रतीति एथी समंकीत ओळखाय छे." एम समजीने हे भद्र! तुं सकल सुखद् निधान, धर्मक्षनु बीज, भवनिधि पार पमाडनारं पोत, भव्यतावंतनेज प्राप्त थनारं, पाप तस्नु उच्छेदनाएं अने ज्ञान-चारित्रनु मूळ ए, समकित सकल कुधर्मना त्याग पूर्वक तुं अंगीकार कर. २३
भापा, बुद्धि, विवेक अने वाक्यमा कुशळ, शंकादि दोषरहित, गंभीर, समतावंत, जितेन्द्रिय, धैर्यवान् , तत्त्वग्राही, देव-गुरु भक्त, अने उचितता विगेरे गुणोथी भूषित एवो भव्य आत्माज समक्ति पामवाने अधिकारी छे. २४ .
४ मिथ्यात्वनो त्याग कर. अज्ञानथी अथवा सम्यग ज्ञाननी खामीथी सत्यासत्य या तचातत्व संबंधी शुद्ध समज विनानी अथवा कदाग्रहवाळी विपरीत बुद्धिनु नाम मिथ्यात्व छे, तेथी जीव सत्य मार्गने त्यजी असत्य मार्गे दोरवाइ जाय छे. अथवा सत्य मार्गने सारीरीने समजी शकतो नथी, तेमज फचित गाढ मिथ्यात्व योगे सन्मार्गने त्यजी असत् मार्गनु