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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. १८३ (२३९) तत्त्वज्ञान पूर्वक संयमानुष्ठान सेववाथीज भवनो अंत थाय छे. (२४०) परभव जतां संवल मात्र धर्मनुज छे माहे तेनो विशेषे खप करवो ते विनाज जीव दुःखनी परंपराने पामे छे. (२४१) जेनुं मन शुद्ध-निर्मळ छे तेज खरो पवित्र छ एम ज्ञानीयो माने छे. (२४२) जेना अंतर-घटमां विवेक प्रगट्यो छे, तेज खरो पंडित छ एम मानवू. (२४३) सद्गुरुनी सुखकारो सेवाने बदले अवज्ञा करवी एज खरुं विष छे. , (२४४) सदा स्वपरहित साधवा उजमाल रहेवू एज मनुष्य जन्मनु खरुं फल छे. (२४५) जीवने वेभान करी देनार स्नेह रागज खरी मदिरा छ एम समजवं. (२४६) धोळे दहाडे धाड पाडीने धर्मधनने लूटनारा विषयोज खरा चोर छे. (२४७) जन्म मरणनां अत्यंत कटुक फळने देनारी तृष्णाज खरी भववेली छे.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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