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________________ - श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. हेलां च्यार शरणां, दुष्कृतनिंदना, सुकृत अनुमोदना सर्व जीव साथे खामणा, संलेखना, पंचाचारनी विशुद्धि तथा नवकार महामंत्रादिकनुं लक्ष पूर्वक स्मरणादिक दश अधिकारो बहु सारी रीते समजवा, आदरवा. अने आराधना अथवा पुन्य प्रकाशना स्तवनथी पण उक्त अधिकार सारी रीते समजी शकाय तेम होवाथी अंत स‘माधिने इच्छावाळा भाइ व्हेनोए तेनुं निरंतर श्रवण मनन करीने तेमा रहेला परमार्थ- परिशीलन कर, युक्त छे. गमे तेवा संयोगोमां पोतानुं खरं निशान नहि चकनार दृढ अभ्यासी अंते समाधि मरणने पामी अक्षय मुखनो अधिकारी थइ शके छे. ३७ आ भव परभव संबंधी भोगाशंसा करीश नहि. आ लोक अथवा परलोकना सुखनी इच्छाथी करवामां आवती धर्म करणी अल्प फळदायी थाय छे, पण जो तेज करणी केवळ “पारमार्थिक मोक्ष सुखने माटेज सहेतुक समजीने विवेकथी करवामां आवी होय तो तेथी मुख्यपणे मोक्षनो अने गौणपणे सामान्यतः 'स्वर्गादिक मुखनो सहेजे लाभ मळे छेज. मनना परिणाम मुजव सामान्य विशेष फळनी प्राप्ति थाय छे. माटे जेम बने तेम नवळा परिणामने मनमा अवकाश आपको नहि. कढाच तेवो परिणाम भयो
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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