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________________ ७० श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. ज्ञान तेजथी तपता साधु मुनिराजने शाथी भय संभवे ? शुद्ध चारित्रवंतने कशो भय नथी. शुद्ध चारित्र सर्व भयने दूर करी अखंड अनंत सुख साधी शके छे. ॥ १८ ॥ अनात्मशंसाष्टकम् ॥ गुणैर्यदि न पूर्णो ऽसि, कृतमात्म प्रशंसया ॥ गुणैरेवासि पुर्णश्चेत्, कृतमात्म प्रशंसया ॥१॥ श्रेयोद्रुमस्य मूलानि, स्वोत्कर्षांमः प्रवाहतः॥ पुण्यानि प्रकटी कुर्वन, फलं किं समवाप्स्यसि ॥२॥ आलंबिता हिताय स्युः, परैः स्वगुणरश्मयः ॥ अहो स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ ॥३॥ उच्चत्त्व दृष्टि दोषोत्थ, स्वोत्कर्षज्वर संज्ञिकं ॥ पूर्वपुरुष सिंहेभ्यो, भृशं नीचत्व भावनं ॥ ४ ॥ शरीररूप लावण्य, प्रामारामधनादिभिः॥ उत्कर्षः परपर्याय, श्चिदानन्द घनस्यकः ॥५॥ शुद्धाः प्रत्यात्म साम्येन, पर्यायाः परिभाविताः॥ अशुद्धाश्चा ऽपकृष्टत्वान्, नोत्कर्षाय महामुनेः॥ ६॥
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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