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जैनहितोपदेश भाग ३ जो. __ स्वभाव हानि थाय छे माटे मोक्षार्थी जीवने सर्वत्र कर्तृत्व अभिमान सर्वथा त्यजी तटस्थपणुंज आदरवं युक्त छे.
४. परब्रह्ममा मग्न थयेल महापुरुषने पुद्गल संबंधी कथाज प्रिय लागती नथी. तो अनर्थकारी सुवर्णादिक द्रव्यनो संचय के मनोहर स्त्रीयोमा आसक्ति तो होयज शानी ? स्वरुप सुखमा मन थयेलने क. नक के कामिनी व्हाला लागतांज नथी.
५. जेम जेम दीक्षानो पर्याय वधतो जाय छे तेम तेम साधु पुरुषने चित्तसमाधिमां वधारो थतोज जाय छे एम भगवती सूत्रादिकमां कडं छे ते आवा स्वरुप मन साधुओमाज घटमान थाय छ, कर्ष छे के १२ वार मासनी दीक्षावाला. मुनि अनुत्तर विमानवासी देवना सुखने उल्लंघी जाय छे. ते देव करतां पण आवा मुनि अधिक मुखी होय छे. कारण के दीसा वृद्धिथी तेमनी लेझ्याशुद्धि थती जाय छ, अने निर्मल लेश्या योगे चित्तनी अधिक प्रसन्नता होय छे, जेथी खभाविक मुखमां वधारो यतो जाय छे. १२ मासमा आटलं सुख थाय छे तो अधिकाधिक दीक्षा पर्याय तो कहेज शृं? प्रबल शान्त वाहितावडे केवल निजस्वरूपमा मन थइ रहे छे.
६ ज्ञानामृतमा मग्न थयेलाने जे मुख संभवे छे ते मुखथी कही । शकाय तेवू नथी. प्रिया प्रेमालिंगन के चंदननो रस तेवी शीतलसानं सुख आपी शकेज नहि. केमके प्रथमर्नु सुख सत्य स्वभाविक