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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
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आ प्रमाणे टुंकाणमां कहेली हकीकत लक्षमां राखीने विवेकथी वर्तनार पोताना शुभ चरित्रथी स्व मानव भव सफळ करी शके छे. अथवा पूर्वे प्रसंगोपात बतावेली मैत्री मुदिता करुणा अने मध्यस्थ भावनाथी पण मनुष्य देहनी सफळता थइ शके छे. हुंकाणमां यथाशक्ति तन, मन, धनधी स्वपर हित साधी लेवुं एज आ मनुष्य भवनुं रहस्य छे. तेमां उपेक्षा करवी ए मूळगी मूडी खोवा जेवुं छे. थी जेम वने तेम प्रमाद रहित स्वपरहित साधवा सदा तत्पर रहेतुं सहृदय जनोने उचित छे.
सद्विवेकथी स्व कर्तव्य समजीने जे शुभाशयो शुद्ध अंतःकरणथी तेनुं सेवन करे छे, ते मनुष्य छतां देवी जीवन गाळे छे; पण जे स्व कर्तव्य समजताज नथी अथवा तो समज्या छतां तेनी उपेक्षाज करे छे; ते तो मनुष्य रुपे पशु जीवनज गाळे छे एम कहेवुं युक्तते.
जे पारकी निंदा करवामां मुंगो छे, परस्त्रीनुं मुख जोवामां अंध छे अने परद्रव्य हरण करवामां पांगळो छे, तेशे महापुरुषज स्वोकर्मा जय पामे छे. जेना घटमां विवेक दीपक प्रगटयो छे तेज लोकमां खरो पंडित छे, तथा जेणे मद्य, विषय, कषाय, निद्रा अने विकथारुप पांचे प्रमादने वश कर्या छे एत्रो अप्रमादी पुरुषज जगतर्मा 'खरो शूरवीर छे.