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१२ जैनहितोपदेश भाग ३ जो. यस्य दृष्टिः कृपा वृष्टि, गिरः शमसुधा किरः॥ . तस्मै नमः शुभ ज्ञान, ध्यान मग्नाय योगिने ॥८॥
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॥ रहस्यार्थ ॥ . . १. पुद्गलानंदीपणुं तजी दइ पांचे इंद्रियो उपर काबु मेलवी पोताना मनने समाधिमा स्थापी केवल ज्ञानामृतनुज सेवन करनार पुरुष स्वभाव मन थयो कहेवाय छे. ज्या सुपी जीव पोताना मन तथा इंद्रियोने पातेज वश छे त्यां सुधी ते विभावमां मम छे. विभावनो त्याग करनार स्वभावने पामी अनुक्रमे तेमा मन थइ शके छे माटे मन तथा इंद्रियाने वंश करवा प्रमाद रहित पवित्र ज्ञानामृतनुज सेवन करवा अहोनिश उजमाल थइ रहेQ युक्त छे.
२ ज्ञानामृतना सागर एवं परब्रह्म-परमात्म स्वरुपमा जे मन थयेल छे तेने वीजी वावत हलाहल झेर जेवी लागे छे. जेणे क्षीर समुद्रना जलनु पान कयु होय तेने खारा जलथी तृप्ति केम वळे ? जेणे शान्तरसतुं पान कयें तेने विपयरस केम गमे ?
३. सहजानंद मुखमा मग्न अने जगत स्वरुपने जोनारने परभावनुं करवापणुं घटतुं नथी. तेने तो फक्त सर्वभावमा साक्षीपणुंज होवू घटे छे. सर्व परभावमां तटस्थपणुं त्यजीने कापणुं करवा जा