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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. छे अने स्वभाविक पूर्णता तो जातिवंत रत्ननी कांति जेवी छे. उपाधिमय खोटी मानी लीधेली पूर्णता चिर स्थायि नहि होवाथी क्षणिक छे, अने खरी आत्मिक पूर्णता तो चिर स्थायी होवाथी अविहड छे. पहेलीने पुंठ देवाथी वीजी खरी पूर्णता पामी शकाय छे.
३. समुद्रमा मोजांनी जेम विकल्प तरंगथी मानेली पूर्णता खोटी छे अने तेवा विकल्प रहित खरी पूर्णतावाला सहजानंदी सत्पुरुष तो शान्त महासागर जेवाज निश्चल होय छे. खोटी पूर्णता तोफानी समुद्र जेवी हालकलोलवाली छे तेथी विश्वास राखवा योग्य नथी अने खरी पूर्णता तो शान्त महासागर जेवी निश्चल होचाथी सर्वदा विश्वासपात्र तथा आदरवा योग्यज छे पूर्ण अधिकारीनेज ते प्राप्त थाय छे.
४. तृष्णारूपी कालानागनु झेर कापवा जांगुली मंत्र जेवी ज्ञानदृष्टी जेने जागी छे एवा पूर्णानंदी पुरुषने दीनतारूपी वोंछीडानी वेदना शा हीसावमा छे ? खरी वात छे के जेणे तृष्णाने समूलगी छेदी नांखी छे तेने परनी दीनता करवानु कांइपण प्रयोजन रहा नथी, तृष्णाना तरंगमा तणातानेज परनी.दीनता करवी पडे छे.
५. कृपण लोको जेनाथी संतोष माने छे एवी पुद्गलीक वस्तु ओनी उपेक्षा करवी तेज साची पूर्णता छे. विवेकी पंडितनी दृष्टि पूर्ण आनंद अमृतथी भरेली होय छे. एवा स्वाभाविक मुखथी कृपण . लोको केवल कमनसीब रहे छ.