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4 . श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. अपूर्णः पूर्णतामेति, पूर्यमाणस्तु हीयते ॥ पूर्णानंद स्वभावोऽयं ।। जगदद्भुत दायकः ॥ ६॥ परस्वत्व कृतोन्माथा ॥ भूनाथा न्यूनते क्षिणः ॥ स्वस्वत्व सुख पूर्णस्य ॥ न्यूनता न हरे रपि ॥७॥ कृष्णपक्षे परिक्षीणे ॥ शुक्ले च समुदंचति ॥ द्योतते सकला ध्यक्षा ॥ पूर्णानन्द विधोः कला ॥८॥
॥रहस्यार्थ॥ १. इंद्रनी साहेबी जेवा मुखमा मग्न थयेलो जीव जेम जगत मात्रने सुखमय देखे छे तेम सहज आत्ममुखथी पूर्ण पण जगत मात्रने पूर्णन देखे छे जेम संपूर्ण सुखी सर्वने मुखमय देखे छे, तेम • सहजानंद पूर्ण दृष्टि पण सर्वने पूर्णज देखे छे. अथवा आत्मानी सहज - संपत्ति संबंधी स्वभाविक सुखमा मग्न थयेल शुद्ध-ज्ञानानंदी पुरुष, ‘आ समस्त जगतने इंद्र-जाल'तुल्य कल्पित क्षणिक पुद्गलिक सु
खमा मग्न थइ रहेल देखी, तेथी उदासीन-विरक्त थइ रहे छे. कल्पित पुद्गलिक पूर्णतानो परिहार करनार. प्राणी सहज आत्मिक 'पूर्णता पामी शके छे. ___२. परउपाधिवाली पूर्णता कोइना याची लावेला घरेणा जेवी