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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
भोजन सर्वथा तंजे छ, निःस्पृहपणे अन्य योग्य अधिकारीजनोने धर्मोपदेश दे छे, रायने अने रंकने समान लेखे छे, नारीने नागणी तुल्य लेखी दूर तजे छे, सुवर्ण अने पथ्थरने समान लेखे छे, निंदा-स्तुति सांभळीने मनमा हर्ष-शोक लावता नथी, चंद्रनी जेवा शीतळ स्वभावी छे, सायरनी जेवा गंभीर छे, मेरुनी जेवा निश्चळ छे, भा. रंडनी जेवा प्रमाद रहित छे, अने कमळनी जेवा निर्लेप छे जेथी राग द्वेष अने मोहादिक अंतरंग शत्रुओने जीतवाने पूर्वोक्त महादेवना वचनानुसारे पुरुषार्थ फोरव्या करे छे. एवा प्रवहणनी जेम स्व 'परने तारवा समर्थ सद्गुरु होय छे, एवा शुद्ध गुरुमहाराजनुं मोक्षार्थी जनाए अवश्य शरण लेवू योग्य छे.
चारित्र०-अहो प्राणवल्लभा ! सुमति ! सद्गुरुनु आवु यथार्थ स्वरुप सांभळीने लांवा वखतनो लागु पडेलो मारो मद-ज्वर शान्त थइ गयो छे. हवे मारां पडळ खूल्यां. शुद्ध चारित्र पात्र सद्गुरु
आवाज होय ते यथार्थ जाणवाथी मारो आगलो भ्रम भागी गयो 'छे, अने हुँ हवे खुल्लेखुल्लु कही देउं छ के हुं तो मात्र नामनोज चारित्रराज छु. अहो सुमति ! जो मने तारो समागम थयो न होत तो आ अनादि मायानो पडदो शी रीते दूर थइ शकत अने ते पडदो दूर थया विना मारा शा हाल थात ? हुँ दंभत्तिथी मुग्ध जनोने ठगीने केवो दुःखी थात ? अरे मायावी एवा मारा मिथ्यालंवनथी केटलो बधो अनर्थ थात ? हुँ कहुं.छं के तारु कल्याण थजो!