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श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
पूर्वोक्त वे प्रकारना कषाय समजवानु फळ ए छे के जेनाथी भव संतति वधे एवा"अप्रशस्त कषायथी दूर रहेवा माटे प्रथम तो प्रशस्त रागादिक सेवां. एटले के शुद्ध देव, गुरु अने धर्म प्रति प्रेमभाव धारण करवो ने वधारवो. ते एटले सुधी के संसार संबंधी खोटो राग समूळगो नष्ट थइ जाय. अने आत्म-गुणगें आपपने सहज भान थाय अने छेवटे वीतरागदशा, प्रगट करवाने सर्व प्रमाद दोपनो परिहार करीने सम्यग् ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना दृढ अभ्यासथी आपणे सर्वथा निष्कषायपणुं पामीये. ___ जेओ शुद्ध देव गुरु धर्म उपर निर्मळ राग करवाने वदले उलटो कराग-द्वेष पेदा करे छे ते हतभाग्योने भविष्यमां अनंत भव भ्रमण करवू पडशे. अने तेमने प्राप्त सामग्री पुनः पामवी दुर्लभ थइ पडशे.
जेओ पाते गुणी छतां गुणवंत उपर राग धरशे तेओ अवश्य उभय लोकमां मुख अने यशना भागी थइ अंते अक्षय पदने पामशे.
दीक्षा ग्रहण करीने जे क्रोधादि कषायने सेवशे-हितकारी वचन कहेनारनी उपर कोपशे, तपश्रुतनो गर्व करशे अथवा पूजा प्रतिष्ठादिकथी मनमां अभिमान धरशे, खरा गुण विना खोटो आडंवर रची दंभवृत्ति चलावशे अने वस्त्र पात्र पुस्तक या शिष्य शिष्याओनो खोटो लोभ राखशे. तेमनी उपर ममता धारण करशे तो