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१६ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो.
५ आभिनिवेशिक-जाणी जोइने हठ कदाग्रहथी सत्य वस्तुनो अनादर करीने असत्य वस्तु (धर्म) नो स्वीकार करी तेज स्थापन करनार निन्हवो चिगेरे.
उक्त मिथ्यात्व महा दोषथी भरेला जीवो सत्य धर्मने सेवी शकता नथी. जेम ज्वरातुर जीवने दूध साकर भावतां नथी तेम मिथ्यामतिने सत्य धर्म रुचतो नथी. जेय रोगीने कुपथ्य व्हालुं लागे छे तेम तेने कुधर्म प्रिय लागे हे, छतां परोपकारकनिष्ट सदैव समान सद्गुरु मिथ्यामतिने वारवा अने शुभ मतिने धारवा भव्य जीवोने नीचे मुजब हितोपदेश आपे छे-हे भव्यो ! सकल पापनु मूळ, दुःख वृक्षनु वीज, नगृहनु द्वार, स्वर्ग, अपवर्गनु भारे विघ्न, परम पुरुष निंद्य, अने मृढ लोकोए सेवित एवा सकल असार मिथ्यात्व वीजनो तमे त्याग करो के जेथी समकित अमृतनु सेवन करी तमे अक्षय सुखना अधिकारी थाओ."
सम्यग् ज्ञाननु सेवन कर. जेना वडे (आत्म) वस्तु धर्मनु यथार्थ भान थाय अने अज्ञान अंधकार दूर थाय तेमज जेथी तत्काळ मिथ्यात्व भ्रमने दूर करनार समकित गुण प्रगट थाय तेने ज्ञानी पुरुषो सम्यग् ज्ञान कहे छे. ..
सम्यग् ज्ञानीने गमे तेवु शास्त्र समपणे परिणये छे. गमे तेमां