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श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जो. शास्त्रोक्ताचारकर्ता च, शास्त्रज्ञः शास्त्रदेशकः ॥ शास्त्रैकहर, महायोगी, प्राप्नोति परमं पदम् ॥ ८॥
॥ रहस्यार्थ ॥ १. सर्वे मनुष्य तियेचो चर्मचक्षुने धारण करनारा छे, एटले के तेमने चामडानी चक्षु छे. देवता मात्रने अवधिज्ञानरुपी चक्षु छे. सर्व सिद्ध भगवानोने प्रदेशे प्रदेशे चक्षु छे केमके तेओ अनंत ज्ञान अने दर्शन गुणथी युक्त छे. अने साधु मुनिराजोने शास्त्ररुपी दिव्य चक्षु होय छे. हवे शास्त्रचक्षु केवी उपयोगी छे ते वतावे छे.
२. ज्ञानी पुरुषो शास्त्र चक्षुवडे उर्ध्व अधो अने तीर्थी-त्रणे लोकमां वर्तता सर्व भावोने प्रत्यक्षनी पेरे देखे छे. जेम निर्मल आरोसामा सामी वस्तुओनां प्रतिबिंब सारी रीते पडी रहे छे तेय निमल ज्ञानचक्षुयी पण त्रिभुवनवती सर्व पदार्थोनुं यथार्थ भान था शके छे. माटेन मुमुक्षुजनो विनय पूर्वक अहोनिश ज्ञाननुं आराधन करवा उजमाल रहे छे. हवे प्रसंगोपात ग्रंथकत्तों शास्त्रनुं लक्षण कहे छे.
३. मोक्ष मार्गनुं शासन-यथार्थ कथन करवाथी अने त्राणरक्षण करवा समर्थ होवायीं शास्त्र शब्द सार्थक थाय छे. एवू शास्त्र