________________
९६
जैनहितोपदेश भाग ३ जो.
रागी द्वेषी के वीतराग प्रभुनां
तो वीतरागनां वचनरूप होय छे. ते विना अन्य मोहाधीननां वचन सत् शास्त्ररूप होइ शकतां नथी. वचन सर्व दोष रहित अने सर्व गुण सहित होवाथी शास्त्ररूपे मान्य करवा योग्य छे, परंतु तेवा गुणविनाना अन्य वागाडंबरीनां वचन सत् शास्त्ररूप नहि होवाथी मुमुक्षु वर्गने मान्य करवा योग्य नथी . तेवां सत् शास्त्र मानवाथी माननारने शो फायदो थाय छे ते शास्त्रकार पोतेज बतावे छे.
४. सत्शाने आगल कर्याथी वीतरागने आगल कर्या समजवा. अने वीतरागने आगल कर्ये छते निवें सर्व सिद्धियो संपजे छे. वीतराग प्रभुनी पवित्र आज्ञाओने मान्य करनारना सर्व मनोरथ सीजे छे, एकांत हितकारी प्रभुनी पवित्र वाणीनो अनादर करनार अज्ञानी जनोना केवा हाल थाय छे ते शास्त्रकार बतावे छे.
५. शास्त्ररुपी दिव्य दीपक विना अजाण्या विषयमा एकदम दोडता दुर्बुद्धिजनो मार्गमां पगले पनले स्खलना पामता परम खेदने अनुभवे छे. सत् शास्त्ररूपी दिव्य चक्षु विना जीवने सत्यमार्ग सुजतोज नयी तेथी सत्य मार्गथी चूकी जीव आडोअवलो अथडाइ बहु हेरान थाय छे. स्वकपोल कल्पित मार्गे चालतां जीवने एवा जोखममां उतरनुं पडे छे. जो वीतराग वचननुं शरण लही ते मुजव वर्तन कराय - तो कंइपण भीति राखवानु कारण रहे नहिं.