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________________ १६० श्री जैनहितोपदेश भाग ३ जोः तेमज चंदनने जेम जेम घसवामां के कापवायां आवे छे तेम तेम ते तेना घसनार के कापनारने. उत्तम प्रकारनी सुगंध या खुशवो आपे छे. तेवीज रीते सत्पुरुषोने प्राणांत कष्ट पडये छते पण कदापि प्रक तिनो विकार थतोज नथी. ते तो तेवे वखते उलटी अधिक उजळी. थइ आत्म लाभ भणी थाय छ आवाज पुरुषो जगतमा खरा पुरुपनी गणनामां गणावा योग्य छ, (१००) योगी पुरुषोने वैराग्य-पुष्टिथी जे अंतरंग सुख थाय छे तेवू सुख इंद्रादिकने स्वममां पण संभवतुं नथी. केमके इंद्रादिक सुख विषयजन्य होवाथी केवळ वहिरंग-बाह्य-कल्पितज छे. (१०१) मध्य-उदरनी दुर्वळताथी कृशोदरी-खी शोभे छे, तपोनुष्ठानवडे थयेली शरीरनी दुर्वळताथी यति-मुनि शोभे छ। अने मुखनी कृशतायी घोडो शोभे छे, पण तेओ कंइ आभुषणथी शोभतां नथी. सर्व कोइ स्व स्व लक्षण लक्षित छतांज शोभे छे. (१०२) जे स्त्रीनां प्रेमाळ वचन सांभळीने चंचळ-चित्त थतो नथी तेमज स्वीना नेत्र कटाक्षथी पण लगारे संक्षोभ पामतो नथी तेज योगीश्वर रागद्वेष विवर्जित होवाथी जगतमां जयवंतो वर्ने छे. (१०३) अनेक दोषथी भरेली कामनी कुपित थये छत पण कामातुर जीव तेणीनो आदर करतो जाय छे. एवी कामांधताने धिकार पडो.
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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