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________________ श्री जैनहितोपदेश भाग २ जो. १६५ दुष्ट दोषोनो सर्वथा क्षय थाय नहि त्यां सुधी तेमनो संपूर्ण क्षय करवा माटे काळजी पूर्वक जे जे धर्म करणी करवामां आवे ते ते सर्व व्यवहार करणीमांज लेखाय छे. परंतु एटलो विशेष ( तफावत ) छे के जेम जेम आत्मा पूर्वोक्त दोषोनो क्षय करवाने विशेषे सन्मुख थतो जाय छे तेम तेम सहज सन्मुख भावे सेवन करवामां आवतो ते व्यवहार शुद्ध, शुद्धतर, अने शुद्धतम कहेवाय छे. चारित्र ० - पूर्वोक्त निश्चय अने व्यवहार धर्मतुं कंइक वधारे स्फुट थाय तेम समजात्रो ? सुमति – अनादि कर्म संयोगथी प्रभवता राग द्वेषादिकने पूर्वोक्त अहिंसा संयम अने तप रूप धर्मनी सहायथी दूर करीने आत्माना स्वाभाविक ज्ञानादिक गुणोने प्रगट करी तेमनुं रक्षण कर. पूर्वोक्त प्रमाद योगे तेमनुं विराधन थवा न देवं तेज निश्चय धर्म छे. सत्तागत रहेला आत्माना स्वभाविक गुणोने ढांकी देनारा कर्म आवरणो ने हठाववाने अनुकूल जे जे सदाचरण सेवनुं पडे ते ते सर्व व्यवहार धर्म कहेवाय छे. आधी स्फुट समजाशे के व्यवहार मार्गनुं विवेकथी सेवन कर ए निश्चय धर्म सिद्ध करवानुं अवंध्य ( अमोघ ) साधन छे. एटले के व्यवहार का - रण रुप छे अने निश्चय कार्य रूप अथवा फळ रुप छे. ० 0 चारित्र - उक्त स्वरुपनुं समर्थन करवा मुखे समजी शकाय एवं कोइ पद्यात्मक प्रमाण टांकी देखाड़ो ?
SR No.010503
Book TitleJain Hitopadesh Part 2 and 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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